Friday, May 14, 2010

दिल तो आखिर दिल है न..

आज हम थोड़े ग़मगीन हैं....और भला क्यों न हो...अगर दिल की
बात सामने आई है..तो दर्द भी सामने आएगा ही....किसी बड़े विद्वान
दार्शनिक ने कहा है -दिल तो आखिर दिल है न...मीठी सी मुश्किल
है न...अब क्या बताये साहब...य़ू तो नज़रे पहले भी चार हुई थी..
मगर हमारे दिल की गिटार य़ू न बजी थी..हालांकि पहल हुई सामने
से ही...फिर वही सिलसिला...दो बाते इधर से चार उधर से....बस जी
पूरी लगन से लगे थे हम...दिन रात तेज़ हवांए चलती..कानों में घंटियाँ
सी बजती थी...वो किलनिया मुस्कान दिल को घायल करती रहती थी.
टेबल पर पीले फूल भी सजने लगे थे...अब तो exams का भी डर नहीं
लगता था, teacher लोगों को भी हैरानी थी...आज- कल किसी के टूटने
फूटने की,स्कूल में प्रिय पिल्ले का आगमन या library में उत्पात की
ख़बरें नहीं आ रही....यहाँ तक की maths वाले सर की punishment के
अत्याचार  भी बड़े प्यार से उठाये जा रहे है.....हाय ये नन्हा दिल सब
प्यार से सह रहा था....मगर इक दिन....इसकी हँसी छिन गयी..ख़ुशी
छिन गयी और तो और गिटार के तार भी टूट गए.....
अब ये न पूछना कैसे.....भैया दिल टूटा था मजाक नहीं था...
अब तो...इक ही बार में ये फ़साना कहा नहीं जाता...दर्द मिला तो था
बहुत पहले, पर आज भी सहा नहीं जाता......
फिर कभी कहेंगे की हुआ क्या था.....
 

Sunday, April 25, 2010

स्कूल के दिन...

और भई क्या हाल-चाल......सुबह का वक्त है और खिड़की के
बाहर बच्चे बैग टाँगे sachool को चल दिए हैं...हम भी जाते थे
स्कूल...या यूँ कहे की भेजे जाते थे, अगर असली बात पर आये
तो धकेले जाते थे....हम हर सुबह सोचते क्या आज प्रलय नहीं
आ सकती....उन दिनों इंडिया टीवी न्यूज़ वाले नहीं थे...जो आज
कल दुसरे-तीसरे आने वाली तबाही के बारे में हमें आगाह करके
अपने कर्त्तव्य का पालन करके असीम आनंद को प्राप्त होते हैं.
फिर चाहे हम असहाय निर्बल जनता उन प्रलय की ख़बरें सुन-सुन
के स्वयम ही प्रलय लाने को विवश हो जाये.....ख़ैर अच्छी ख़बरें और 
अच्छे रिश्ते समय बीतने के बाद और काम हो जाने के बाद ही
मिलते हैं...[शादी के बाद]....तो भैय्या, मन मार के जेल की ड्रेस पहन के
झोला उठा के ....टिफिन ले  के कर जाना ही पड़ता था...ड्रेस पहनते वक्त
दिमाग सुपर कंप्यूटर की स्पीड से चलता की कही कोई अघोषित छुट्टी
की खबर याद आ जाये, किसी teacher की मौत या उसके किसी रिश्तेदार
की, या किसी बीमारी की...छींक की ही खबर आ जाये.....मगर गांडीव के सारे
प्रयास विफल जाते...अर्जुन का इक भी तीर निशाने पर न लग के खाली
वापस आ जाता .....
               इक दिन गमगीन हो बस्ता उठाये घर से निकले तो नज़र
हमारे प्रिय पिल्ले पर गयी...वो बड़ा  उछल रहा था मानों अपनी आज़ादी
 का जश्न मन रहा हो और हमे चिढ़ा  रहा हो...हमने भी सोचा की बच्चू
आज तुम्हे स्कूल की सैर करा ही दें, गोद में उठाये पहुँच गए क्लास में...
पीछे सीट के नीचे उसे बिठा दिया गया..physics की क्लास थी...सर जी
ने याद करके आने को बोला था....बस जैसे ही उनके मुह से सवाल निकलते
प्रिय पिल्ले को इक लात पड़ती....और बड़ी ही मार्मिक कायं-कायं
का स्वर गूंज उठता...फिर शांत हो माहौल जैसे ही सर जी दूसरा सवाल
दागते हम पिल्ले की स्वरलहरियां फिर गुंजाते...बस थक हार के सर जी
क्लास से बाहर हो लिए और उस दिन physics के बमबारी से बच गए...
और हमारे प्रिय पिल्ले ने जो कुर्बानी दी...उसने हमारी आखों में पानी
ला दिया......

Saturday, April 10, 2010

वो शरारतों के दिन...

हाँ तो भई आ गयी मैं कुछ और यादें, कुछ और बातें ले कर.
वो स्कूल के दिन थे,शाम को घर में घुसते ही बैग इक तरफ
पटका,जूते कहीं मोज़े कहीं, जैसे बरसों की दुश्मनी निकालने
का  मौका अब जाके मिला हो...और बरसों के अत्याचारों का
सिला अब उन मासूम जूतों-मोजो , टाई-बेल्ट को मिल रहा हो.
ख़ैर, खाने की फरमाइश घुसते ही हो जाती थी...माँ को भी
पता रहता था...आते ही पेशकश भी हो जाती थी...फिर भी
ये dialough हमेशा सुनाने से बाज नहीं आती...पहले कपडे बदलो
मुँह-हाथ धोओ....खा-पी के, थोडा आराम फरमाने के बाद
होमवर्क जैसे तैसे सुलटा के....हम निकल पड़ते गली के बादशाह बनने.
इक शरारत याद आ रही है...वह दिवाली के कुछ रोज़ पहले के दिन
थे...हमारी टोली में विमर्श हुआ की इस बार क्या किया जाये...
तभी सुवरों के  इक झुण्ड पे नज़र पड़ी जो गोले में  पड़े हुए मानों
स्वर्ग का सा सुख भोग रहे हों...बस हमने तय किया भई दिवाली है
तो इन्हें भी मनाना चाहिए...तो हमने सारे बड़े- बड़े बमों को
इक्कठा किया..जो कम से कम मोहल्ले को अपने कर्ण-भेदी
आवाज से हिला दें...चैन की बंसी बजाते हुए सुवरों के बीच
हमने अपने हथियार सजाये बस सुतली सुलगा के भाग खड़े हुए,
फिर तो जो भगदड़ मची....क्या कहने ..उस अद्भुत दृश्य के...
मानो अर्जुन ने कृष्ण के विशाल रूप का साक्षात्कार कर लिया हो..
ख़ैर...बाद में मोहल्ले समेत घर में खूब डांट पड़ी...अब कौरवों को
क्या पता...कुरुक्षेत्र में उस पार क्या हो रहा है...अज्ञानी जीव...
ऐसा मज़ा हमने अपने मोहल्ले के प्रिय पिल्ले को भी दिया था..
इक उदास शाम हमने सोचा...किसी को खुश किया जाये..
बस नज़र पिल्ले पे गयी....और खुराफाती दिमाग ने काम करना
शुरू कर दिया...bread का लालच देके उसे करीब बुलाया गया..
बाकी कुछ जुझारू लोगों ने खटाखट चटाई बम का इन्तेजाम किया...
और बस पूरी लड़ी...पिल्ले की पूंछ में...और गहन संतुष्टि हमारे
चेहरों पर...भई दिवाली सिर्फ हमारी ही नहीं है.....
इसके बाद क्या हुआ....आप अंदाजा लगा ही लेंगे...

Monday, March 29, 2010

... कौन है चारू ?

     
   आज मैं आप सबको किसी से मिलवाना चाहती हूँ.आप सब बड़े समझदार हैं,
इतने से ही समझ गए होंगे की मैं किसकी बात कर रही हूँ,'' चारू '' यानी की
अपनी.शायद आपसे मिलवाते मिलवाते मैं भी उससे मिल लूँ.आप सोचेंगे
जिससे मैं ही नहीं मिली उससे कैसे मिल्वाउंगी, मगर जी ये जो जिन्दगी है न
इसके सफ़र में ऐसा ही होता है. जब से आँखें खुली तब से उसे जाना. इस दुनिया
में आने का सफ़र भी आसान नहीं था....जब आई तो बड़ी प्यासी थी...कुछ गंभीर
होने का भी खतरा था...अरे, ये तो बताना भूल ही गयी की मैंने पहली बार आँखे
खोली कहाँ...बनारस...भारत  की एक पवित्र धार्मिक नगरी...आस्था, विश्वास
और धर्म का अनूठा संगम. खैर, बनारस के विषय में फिर कभी चर्चा होगी.
हॉस्पिटल का नाम तो मुझे नहीं पता.. मगर वो दिन बड़ा ख़ास था.
नवरात्र चल रहे थे...और वह अष्टमी का दिन था..३० सितम्बर  को दिन के
२:४५ बजे...डॉक्टर ने मेरी माँ से कहा मैं लंच कर के आती हूँ....मेरे आने में
थोडा समय था...उस दिन उस हॉस्पिटल में सुबह से जितनी भी dilivery  हुई
सब लडकियाँ थी...डॉक्टर ने सुबह से कुछ नहीं खाया था...मगर मुझे तो जाने
कौन सी शैतानी सूझी थी की जिद पे आ गयी की बस अभी ही आना है,
मेरी माँ ने डॉक्टर का आँचल पीछे से पकड़ा और इशारा किया की मत जाओ..
मेरी शैतान इस दुनिया में आने को मचल रही है...डॉक्टर को अपना लंच छोड़ना
पड़ा..और मेरी सेवा में लगना पड़ा..कुछ दी देर में मैंने चीख-चीख के सबको
अपने आने की खबर दे दी...हाँ तो मैंने पहले बताया था जब आई तो बड़ी
प्यासी थी....मुझे ड्रॉप से पानी पिलाया गया...मैं थी की पिए जा रही थी,पिए जा
रही थी...मैं उस दिन की आठवी बच्ची थी...डॉक्टर समेत सबने कहा दुर्गा माँ
आई हैं...मेरे माथे पैर हलके हलके बालों की एक भवर सी बनी थी...जो गोल चक्र
जैसा आभास देती थी...डॉक्टर ने कहा ये मेरे हाथों पैदा हुई सबसे सुन्दर बच्ची
है...मगर दो दिन तक मुझे close observation में रखा गया....शायद कुछ
होने का खतरा था...मगर मैंने वो दो दिन की लड़ाई जीत ली और स्वस्थ अपने
घर आ गयी....तो आते ही संघर्ष शुरू हो गया....मगर आते ही बस लोगों की
तारीफों और स्नेह  के फूल बरसने लग गए.......बस तब से कुछ ऐसे ही जिन्दगी
चली है ....संघर्ष, स्नेह और प्रशंषा के साथ....अब तो आपका और मेरा सफ़र भी
शुरू हो चला है.....अब तो मुलाकात होती रहेगी...आज बस इतना ही....
चलती हूँ...
अपना ख्याल रखियेगा...