हाँ तो भई आ गयी मैं कुछ और यादें, कुछ और बातें ले कर.
वो स्कूल के दिन थे,शाम को घर में घुसते ही बैग इक तरफ
पटका,जूते कहीं मोज़े कहीं, जैसे बरसों की दुश्मनी निकालने
का मौका अब जाके मिला हो...और बरसों के अत्याचारों का
सिला अब उन मासूम जूतों-मोजो , टाई-बेल्ट को मिल रहा हो.
ख़ैर, खाने की फरमाइश घुसते ही हो जाती थी...माँ को भी
पता रहता था...आते ही पेशकश भी हो जाती थी...फिर भी
ये dialough हमेशा सुनाने से बाज नहीं आती...पहले कपडे बदलो
मुँह-हाथ धोओ....खा-पी के, थोडा आराम फरमाने के बाद
होमवर्क जैसे तैसे सुलटा के....हम निकल पड़ते गली के बादशाह बनने.
इक शरारत याद आ रही है...वह दिवाली के कुछ रोज़ पहले के दिन
थे...हमारी टोली में विमर्श हुआ की इस बार क्या किया जाये...
तभी सुवरों के इक झुण्ड पे नज़र पड़ी जो गोले में पड़े हुए मानों
स्वर्ग का सा सुख भोग रहे हों...बस हमने तय किया भई दिवाली है
तो इन्हें भी मनाना चाहिए...तो हमने सारे बड़े- बड़े बमों को
इक्कठा किया..जो कम से कम मोहल्ले को अपने कर्ण-भेदी
आवाज से हिला दें...चैन की बंसी बजाते हुए सुवरों के बीच
हमने अपने हथियार सजाये बस सुतली सुलगा के भाग खड़े हुए,
फिर तो जो भगदड़ मची....क्या कहने ..उस अद्भुत दृश्य के...
मानो अर्जुन ने कृष्ण के विशाल रूप का साक्षात्कार कर लिया हो..
ख़ैर...बाद में मोहल्ले समेत घर में खूब डांट पड़ी...अब कौरवों को
क्या पता...कुरुक्षेत्र में उस पार क्या हो रहा है...अज्ञानी जीव...
ऐसा मज़ा हमने अपने मोहल्ले के प्रिय पिल्ले को भी दिया था..
इक उदास शाम हमने सोचा...किसी को खुश किया जाये..
बस नज़र पिल्ले पे गयी....और खुराफाती दिमाग ने काम करना
शुरू कर दिया...bread का लालच देके उसे करीब बुलाया गया..
बाकी कुछ जुझारू लोगों ने खटाखट चटाई बम का इन्तेजाम किया...
और बस पूरी लड़ी...पिल्ले की पूंछ में...और गहन संतुष्टि हमारे
चेहरों पर...भई दिवाली सिर्फ हमारी ही नहीं है.....
इसके बाद क्या हुआ....आप अंदाजा लगा ही लेंगे...