Sunday, April 25, 2010

स्कूल के दिन...

और भई क्या हाल-चाल......सुबह का वक्त है और खिड़की के
बाहर बच्चे बैग टाँगे sachool को चल दिए हैं...हम भी जाते थे
स्कूल...या यूँ कहे की भेजे जाते थे, अगर असली बात पर आये
तो धकेले जाते थे....हम हर सुबह सोचते क्या आज प्रलय नहीं
आ सकती....उन दिनों इंडिया टीवी न्यूज़ वाले नहीं थे...जो आज
कल दुसरे-तीसरे आने वाली तबाही के बारे में हमें आगाह करके
अपने कर्त्तव्य का पालन करके असीम आनंद को प्राप्त होते हैं.
फिर चाहे हम असहाय निर्बल जनता उन प्रलय की ख़बरें सुन-सुन
के स्वयम ही प्रलय लाने को विवश हो जाये.....ख़ैर अच्छी ख़बरें और 
अच्छे रिश्ते समय बीतने के बाद और काम हो जाने के बाद ही
मिलते हैं...[शादी के बाद]....तो भैय्या, मन मार के जेल की ड्रेस पहन के
झोला उठा के ....टिफिन ले  के कर जाना ही पड़ता था...ड्रेस पहनते वक्त
दिमाग सुपर कंप्यूटर की स्पीड से चलता की कही कोई अघोषित छुट्टी
की खबर याद आ जाये, किसी teacher की मौत या उसके किसी रिश्तेदार
की, या किसी बीमारी की...छींक की ही खबर आ जाये.....मगर गांडीव के सारे
प्रयास विफल जाते...अर्जुन का इक भी तीर निशाने पर न लग के खाली
वापस आ जाता .....
               इक दिन गमगीन हो बस्ता उठाये घर से निकले तो नज़र
हमारे प्रिय पिल्ले पर गयी...वो बड़ा  उछल रहा था मानों अपनी आज़ादी
 का जश्न मन रहा हो और हमे चिढ़ा  रहा हो...हमने भी सोचा की बच्चू
आज तुम्हे स्कूल की सैर करा ही दें, गोद में उठाये पहुँच गए क्लास में...
पीछे सीट के नीचे उसे बिठा दिया गया..physics की क्लास थी...सर जी
ने याद करके आने को बोला था....बस जैसे ही उनके मुह से सवाल निकलते
प्रिय पिल्ले को इक लात पड़ती....और बड़ी ही मार्मिक कायं-कायं
का स्वर गूंज उठता...फिर शांत हो माहौल जैसे ही सर जी दूसरा सवाल
दागते हम पिल्ले की स्वरलहरियां फिर गुंजाते...बस थक हार के सर जी
क्लास से बाहर हो लिए और उस दिन physics के बमबारी से बच गए...
और हमारे प्रिय पिल्ले ने जो कुर्बानी दी...उसने हमारी आखों में पानी
ला दिया......

Saturday, April 10, 2010

वो शरारतों के दिन...

हाँ तो भई आ गयी मैं कुछ और यादें, कुछ और बातें ले कर.
वो स्कूल के दिन थे,शाम को घर में घुसते ही बैग इक तरफ
पटका,जूते कहीं मोज़े कहीं, जैसे बरसों की दुश्मनी निकालने
का  मौका अब जाके मिला हो...और बरसों के अत्याचारों का
सिला अब उन मासूम जूतों-मोजो , टाई-बेल्ट को मिल रहा हो.
ख़ैर, खाने की फरमाइश घुसते ही हो जाती थी...माँ को भी
पता रहता था...आते ही पेशकश भी हो जाती थी...फिर भी
ये dialough हमेशा सुनाने से बाज नहीं आती...पहले कपडे बदलो
मुँह-हाथ धोओ....खा-पी के, थोडा आराम फरमाने के बाद
होमवर्क जैसे तैसे सुलटा के....हम निकल पड़ते गली के बादशाह बनने.
इक शरारत याद आ रही है...वह दिवाली के कुछ रोज़ पहले के दिन
थे...हमारी टोली में विमर्श हुआ की इस बार क्या किया जाये...
तभी सुवरों के  इक झुण्ड पे नज़र पड़ी जो गोले में  पड़े हुए मानों
स्वर्ग का सा सुख भोग रहे हों...बस हमने तय किया भई दिवाली है
तो इन्हें भी मनाना चाहिए...तो हमने सारे बड़े- बड़े बमों को
इक्कठा किया..जो कम से कम मोहल्ले को अपने कर्ण-भेदी
आवाज से हिला दें...चैन की बंसी बजाते हुए सुवरों के बीच
हमने अपने हथियार सजाये बस सुतली सुलगा के भाग खड़े हुए,
फिर तो जो भगदड़ मची....क्या कहने ..उस अद्भुत दृश्य के...
मानो अर्जुन ने कृष्ण के विशाल रूप का साक्षात्कार कर लिया हो..
ख़ैर...बाद में मोहल्ले समेत घर में खूब डांट पड़ी...अब कौरवों को
क्या पता...कुरुक्षेत्र में उस पार क्या हो रहा है...अज्ञानी जीव...
ऐसा मज़ा हमने अपने मोहल्ले के प्रिय पिल्ले को भी दिया था..
इक उदास शाम हमने सोचा...किसी को खुश किया जाये..
बस नज़र पिल्ले पे गयी....और खुराफाती दिमाग ने काम करना
शुरू कर दिया...bread का लालच देके उसे करीब बुलाया गया..
बाकी कुछ जुझारू लोगों ने खटाखट चटाई बम का इन्तेजाम किया...
और बस पूरी लड़ी...पिल्ले की पूंछ में...और गहन संतुष्टि हमारे
चेहरों पर...भई दिवाली सिर्फ हमारी ही नहीं है.....
इसके बाद क्या हुआ....आप अंदाजा लगा ही लेंगे...